मनकापुर गोण्डा । कृषि विज्ञान केंद्र मनकापुर के वरिष्ठ वैज्ञानिक राम लखनऊ सिंह ने बताया कि ढैंचा की हरी खाद से बढ़ेगी फसलों की पैदावार । आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय कुमारगंज के अधीन संचालित कृषि विज्ञान केंद्र मनकापुर गोंडा के वरिष्ठ वैज्ञानिक शस्य विज्ञान डा.राम लखन सिंह ने बताया कि इस समय गेहूं की कटाई होने के बाद खेत खाली है । इस समय किसान भाई हरी खाद का उत्पादन कर सकते हैं । मृदा की उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाने हेतु हरी खाद का प्रयोग प्राचीन काल से करते चले आ रहे हैं । हरी खाद के प्रयोग से बढ़ते ऊर्जा संकट और उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि तथा गोबर की खाद जैसे अन्य कार्बनिक पदार्थों की सीमित उपलब्धता आदि समस्याओं का काफी हद तक समाधान किया जा सकता है । दलहनी एवं गैर दलहनी फसलों को उनके वानस्पतिक वृद्धि काल में उपयुक्त समय पर मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाने के लिए जुताई करके अपघटन हेतु मिट्टी में दबाना ही हरी खाद कहलाता है । दलहनी फसलों की जड़ों में गांठें पाई जाती हैं । इन गांठों में राइजोबियम के जीवाणु पाए जाते हैं जो वातावरण में उपस्थित नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर पौधे एवं मिट्टी को उपलब्ध कराते हैं । दलहनी फसलों की जड़ें गहरी तथा मजबूत होने के कारण कम उपजाऊ भूमि में भी अच्छी होती है ।भूमि को पत्तियों एवं तनों से ढक लेती हैं जिससे मृदाक्षरण कम होता है । दलहनी फसलों से मिट्टी में जैविक पदार्थों की अच्छी मात्रा एकत्रित होती है । दलहनी फसलों की जड़ों में पाए जाने वाले राइजोबियम जीवाणु 60 से 150 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर स्थिरीकरण करते हैं । दलहनी फसलों से मिट्टी के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में प्रभावी परिवर्तन होता है । जिससे सूक्ष्मजीवों की क्रियाशीलता एवं आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है । हरी खाद के लिए उपयुक्त फसलों का चुनाव करते समय भूमि, जलवायु तथा उद्देश्य को ध्यान में रखना अति आवश्यक है । हरी खाद के लिए फसलों में निम्न गुणों का होना अति आवश्यक है ।
फसल शीघ्र बढ़ने वाली ऐसी फसल होना चाहिए जिसमें तना, शाखाएं, पत्तियां कोमल एवं अधिक हों तथा शीघ्र सड़कर अधिक से अधिक जीवांश तथा नत्रजन उनको मिल सके । दलहनी फसलों की जड़ों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु ग्रंथियां वातावरण में मुक्त नत्रजन को स्थिरीकरण कर पौधे को उपलब्ध कराती हो । फसल सूखा अवरोधी एवं जलभराव के प्रति सहनशील हो । फसलें मूसला जड़ वाली हो ताकि गहराई तक जाकर पोषक तत्वों का अवशोषण कर सकें । क्षारीय एवं लवणीय मृदा में गहरी जड़ वाली फसलें अन्त: जल निकास बढ़ाने में सहायक होती हैं । हरी खाद के साथ-साथ फसल को अन्य उपयोग में लाया जा सके । रोग एवं कीट कम लगते हो तथा बीज की उत्पादन क्षमता भी अच्छी हो । हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में में सनई ढैंचा उड़द मूंग अरहर चना मसूर मटर लोबिया मोठ खेसारी तथा कुल्थी आदि हैं । पूर्वी उत्तर प्रदेश में जायद में हरी खाद के रूप में अधिकतर किसान भाई सनई ढैंचा उर्द एवं मूंग का ही प्रयोग करते हैं । इनकी उन्नतशील प्रजातियों मे नरेंद्र सनई-1, पंत ढैंचा-1, हिसार ढैंचा-1
हरी खाद के लिए प्रयोग की जाने वाली दलहनी फसलों में भूमि में सूक्ष्मजीवो की क्रियाशीलता बढ़ाने के लिए विशिष्ट राइजोबियम कल्चर से बीज को उपचारित अवश्य करें ।कम एवं समान उर्वरता वाली भूमि में 10 से 15 किलोग्राम नत्रजन तथा 40 से 50 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर उर्वरक के रूप में प्रयोग करने से इन फसलों की बढ़वार अच्छी होती है । हरी खाद के लिए प्रयुक्त होने वाली फसलों में में सनई एवं ढैंचा की बुवाई मई से जुलाई तक वर्षा आरंभ होने पर अथवा सिंचाई करने पर की जा सकती है । हरी खाद हेतु सनई के बीज की 80 से 90 किलोग्राम मात्रा अथवा ढैंचा बीज की 40 से 60 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग किया जाता है । बुवाई के 40 से 45 दिन बाद खेत में पलटाई कर देते हैं । इससे 20 से 30 टन हरा पदार्थ एवं 85 से 125 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर मृदा को प्राप्त होती है । फसल की पल्टाई के बाद खेत में धान की रोपाई करने से अच्छा उत्पादन मिलता है ।
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